जून 15 को फादर्स डे मनाया जाता है। हमारे देश में पारंपरिक रूप से जिस तरह एक फादर या पिता को देखा जाता है, उस सोच में आज काफी बदलाव आने लगे हैं। जैसे जैसे पित्रसत्तात्मक सोच को चुनौती मिल रही है, वैसे-वैसे ना सिर्फ महिलाओं के प्रति रूढ़ियाँ कमज़ोर हो रही है, बल्कि पुरुष भी अपनी पारंपरिक भूमिकाओं से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं। 

फादर्स डे के अवसर पर हमने कोरो टीम के कुछ फादर्स से बात की, कि उनके लिए “पिता” होने के क्या मायने है? वह किस तरह के फादर बनना चाहते हैं? 

जयपुर, राजस्थान के GLODP रीजनल लीड धर्मेंद्र तामड़िया जी अपने विचार बताते हैं: “मेरी दूसरी बेटी 9 मई को पैदा हुई। तब से हमारी दिनचर्या उसके हिसाब से चलती है, जब वो सोती है तभी हम दोनों सो पाते है, सारा दिन उसको खिलाने, साफ करने और सुलाने में लग जाता है! मैं चाहता हूं कि हर घड़ी अपनी पत्नी का साथ दूं, और सारी स्ट्रगल सिर्फ माँ की अकेले न हो। पहली बेटी के जन्म के बाद भी मैंने यही करने की कोशिश की थी। एक माँ बनने के लिए महिला किस मुश्किल दौर से गुज़रती है वो एक पुरुष तभी समझ पाएगा जब वो इस सफर में पूरी तरह शामिल रहे। इस वजह से मैंने पटर्निटी लीव ली। कार्यस्थल पर पुरुषों को पटर्निटी लीव की सुविधा होना बहुत ज़रूरी है। यह अभी सिर्फ 15 दिन की है, इसको कानून में और बढ़ाना चाहिए। बच्चों की परवरिश में पिताओं को भी अपनी भूमिका पूरी तरह निभानी चाहिए”

पहले ज़माने की सोच कैसे बदल रही है यह ज़ाहिर करते हुए धर्मेन्द्र जी बताते हैं..“जब हम छोटे थे, उस दौर में बच्चे अपने पिताओं से डरा करते थे। पर मेरी बेटी मुझसे डरती नहीं हैं, चाहे उससे कुछ गलती भी हो जाएं। पिता और बच्चों के बीच विश्वास और खुलापन होना चाहिए। उन्हें यह महसूस हो कि उनके पिता उनके साथ खड़े रहेंगे हमेशा”

वहीं ऐड्मिन सपोर्ट टीम में कार्यरत सुशील मोरे कहते हैं: “मेरा 5 साल का बेटा है। काम की वजह से जब मैं उसे वक्त नहीं दे पाता तो मुझे बहुत खराब लगता है। एक पिता अपने बच्चे को जो सबसे बड़ा गिफ्ट दे सकता है वो है टाइम..तभी बच्चे के साथ इमोशनल कनेक्शन बनेगा। मैं मानता हूं कि माँ और पिता दोनों को मिलकर बच्चे की देखभाल करनी चाहिए। अक्सर हम देखते हैं कि बच्चों का खयाल रखते हुए, माँओं का खाना तक छूट जाता है। पर मैं कोशिश करता है कि मैं भी खाना बनाऊँ, उसे खिलाऊँ”।

कोरो में आने के बाद निजी जीवन और विचारों पर सोचने और बदलने की  प्रक्रिया भी शुरू हुई। सुशील कहते हैं..”मैं ऐसा पिता बनना चाहता हूं जिससे मेरा बच्चा मुझसे खुलकर, बिना डर के बात कर पाएं। एक पुरुष, पिता, पति को कैसा होना चाहिए, इसको लेकर मेरी सोच में बदलाव कोरो से जुडने के बाद आया, नहीं तो मैं भी पुरानी सोच रखता था। अब मैं अपने निजी जीवन में वो बदलाव ला रहा हूं।“

ऐसे बहुत से पिता है जिन्हें कमाने के लिए परिवार से बहुत दूर रहना पड़ता है। एड्मिन टीम के संदीप नाइक इस दर्द को बयान करते हैं: “मेरे तीन छोटे बच्चे हैं जो गावं में रहते हैं। मुझे सब को छोड़कर, घर से इतनी दूर मुंबई में रहना पड रहा है, सिर्फ एक कागज़ के टुकड़े के लिए। मैं उन्हें वो सब कुछ देना चाहता हूं जो मुझे नहीं मिला। मैं उनके पास रहना, उनकी देखभाल करना चाहता हूं। मेरा सपना है कि मैं आज जितनी मेहनत कर रहा हूं, उससे कम से कम मेरे बच्चों का भविष्य मुझ से अलग हो, उन्हें इतना संघर्ष ना करना पड़े।”

हाल ही में पहली बार पापा बने विपिन जो कि GLODP के कोटा संभाग के रीजनल लीड है अपनी खुशी ज़ाहिर करते हुए कहते हैं.. “पिता बनकर मुझे सच में बहुत अच्छा महसूस हो रहा है। मैं अपने जीवन में ऐसा पिता बनना चाहता हूँ जो कि अपने बच्चे पर किसी तरह का दबाव ना डाले। मेरे बच्चे को क्या करना है, क्या पढ़ना है, क्या बनना है, सब उसके सहमति और मर्ज़ी से हो। और मैं कोशिश कर रहा हूं कि परिवार की ज़िम्मेदारियों से जुड़े सब निर्णय मैं और मेरी जीवनसाथी समानता से एक साथ लें”

एक नए पिता के बाद अब एक पुराने पिता के अनुभव सुनते हैं। कोरो से 30 सालों से जुड़े साथी राहुल गवारे कई सालों से दो बच्चों के पिता की भूमिका में भी हैं। अपना बचपन याद करते हुए राहुल कहते हैं, “जैसा कि मुझे याद है ..बचपन से मुझे या मेरे भाई बहन को पिता का प्यार या सपोर्ट कभी नही मिला। इसलिए मेरा उनसे कोई लगाव नही था। हमें हमारी माँ ने बडा किया है। लेकीन जब मुस्कान ( मुमताज के जरीये ) मुझे एक बेटी के रूप में मिली…तब उससे मेरा एक अलग लगाव बनता गया, और मुझे लगता है कि एक पिता के रूप में मैंने अपने आप को खोजने की कोशिश शुरू की ..जो आज भी जारी है.”

राहुल का अनुभव यह दिखाता है कि एक पुरुष के लिए भी पेरेंट की भूमिका में आना एक भावनात्मक जर्नी हो सकती है। एक पुरुष भी इस पहलू को लेकर गहराई से सोच और महसूस कर सकते हैं। 

“एक पिता होने के नाते मैंने हमेशा अपने दोनों बच्चों पर भरोसा रखने कि भूमिका में रहने की कोशिश की…उस वजह से आज मेरा मेरे बच्चों के साथ एक बराबरी का रिश्ता बन गया है…और ये मैंने कोरो में जो अन्य पुरुष साथी है मेरे साथ उनके सफर मे भी देखा है ..नितीन, श्रीकांत, सुशील और कई नाम है.”, राहुल याद करते हुए कहते हैं। 

राहुल ने एक बेहद ज़रूरी और खूबसूरत बात बताई। “बच्चों की ज़रूरतें पूरी करना तो हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार करता है, लेकिन …बाप संवेदनशील भी होता है, वो रो सकता है, उसे भी सपोर्ट की ज़रूरत होती है और वो भी एक इंसान है जिसकी अपनी क्षमता और कमज़ोरियां हैं, ये बच्चों को पता होना चाहिये। क्योंकि समाज मे चित्र ये बना हुआ है कि बाप पहाड जैसा होना चाहिये, खास तौर पर अगर वो एक बेटी का बाप हो। पर पिता भी एक इंसान है …ये समझ होने से ही बाप और बच्चो मे जुडाव, प्यार और विश्वास बढेगा…”

एक पिता होने और एक पुरुष होने के अर्थ को अपने अपने तरीकों से बदलते हमारे कोरो टीम के साथियों को सलाम!